ये कोई कौन गुमनाम सा है कहीं अन्दर गहरे
जिसपे न जाने बाहर आने पर कितने हैं पहरे
कभी सुनसान पहरों में इक तीखा होता है एहसास
सब कुछ होने के बाद भी कहीं तो है कोई प्यास
सारी कायनात में कहीं तो वो शह होगी या अल्लाह
जो सब कामनायों का कर दे अंत कभी तो वल्लाह
अनेक रूपों में डूबकर देखा, है वो ख्वाहिश अधूरी
स्वयं तुम्हे ही आना होगा करना होगा उसे पूरी
ये खेल में कहीं तो छुपे बैठे हो न जाने कहाँ
कुछ तो इतला दो आ जायूंगी ढूंढती मैं वहां
क्या करना है या क्या नहीं मुझे नहीं है पता
सब कुछ भुला दूं कहीं हो न जाये ये खता
जब भीतर ही हो तो चले आयो न राम
क्यों मंदिरो-मैखाने में बुलाते हो हर शाम
कभी किसी रूप में तो कभी किसी में ढूँढा तुझे
किसी में भी नहीं और सबमें हो समझ आया मुझे