चारों तरफ लक्कड़हारे हैं, फिर भी पेड़ कहाँ हारे हैं
जम के काट रहे हरिआली को, फिर भी हरे भरे नज़ारे हैं
यही तो है जीवन का अर्थ, यही है इस जीवन का सार
जिसको इतना सा समझ आ गया, उसका हो गया बेडा पार
कुरुक्षेत्र के मैदान की तरह सब तरफ है हाहाकार और विनाश
फिर भी कहीं इक लौ जलती है, यही तो है उम्मीद का प्रकाश
पकड़ लो उस लौ को वही तुम्हे जीवन संग्राम में विजय दिलाएगी
चलते रहोगे उसे पकड़ के, कहीं न कहीं तो वो पहुंचाएगी
गिरते रहो, पड़ते रहो, पैर रुको मत कभी भी थक के तुम हार
जब पहुंचोगे मंजिल पे तुम, क्या याद करोगे तुम भी यार
मत लो सहारा किसी का मत लगाओ किसे पे कोई भी आस
अपना कुआँ तुम स्वयं हो खोद्दो, जब भी लगे चलते हुए प्यास
सब रिश्तों की कदर करो, अपने जनम दतायों की सबसे बढ़के
भाई बहिन और सब रिश्ते नाते, सबसे मिलो तुम बढ़ चढ़के
फिर कोई होगा किसी जनम में लेकिन रिश्ता होगा शायद कोई और
आत्मायों का ये सब खेल है, इसका मिला ना किसी को कोई ठौर
लेकिन अपने मोक्ष के प्रति रहो तुम जागरूक, रहो भीतर से अकेले
ऊपर से सबसे इमानदार रहो, सजगता से लड़ो संसार के झमेले
कहाँ से शुरू हुई ये बात, कहाँ पे आके हुई ये ख़तम ओ मेरे भाई
संसार में रहो, विचरो और करम करो, परन्तु जैसे दूध के ऊपर मलाई